

छत्तीसगढ़ में नेत्रदान और कॉर्निया प्रत्यारोपण कार्यक्रम की स्थिति चिंताजनक है। स्वास्थ्य विभाग के अधीन चल रहे नेत्र बैंक और प्रत्यारोपण केंद्रों की पड़ताल में कई खामियां सामने आई हैं। आंकड़ों से पता चला है कि दान में मिली आंखें (कॉर्निया) समय पर जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पा रहीं। बिलासपुर के सिम्स में यह स्थिति सबसे बदतर रही है।
सिर्फ 30% कॉर्निया का ही हुआ उपयोग
बिलासपुर सिम्स में वर्ष 2021-22 से 2025-26 के बीच 167 कॉर्निया प्राप्त हुए, लेकिन इनमें से केवल 50 ही प्रत्यारोपित किए जा सके। चार कॉर्निया संक्रमण के कारण अनुपयोगी रहे, दो अन्य केंद्रों को भेजे गए और शेष को शोध के नाम पर उपयोग बताया गया। इस अवधि में सिम्स का कार्निया उपयोग औसत मात्र 30.49 प्रतिशत रहा, जो प्रदेश ही नहीं, राष्ट्रीय औसत से भी काफी कम है।
रायपुर में स्थिति बेहतर, भिलाई ने डेटा तक नहीं दिया
राजधानी रायपुर के मेकाहारा मेडिकल कॉलेज में स्थिति अपेक्षाकृत संतोषजनक रही। यहां 2021-22 से 2025-26 तक 243 कॉर्निया प्राप्त हुए, जिनमें से 159 का सफल प्रत्यारोपण किया गया। औसतन 67.7 प्रतिशत कॉर्निया का उपयोग हुआ, जो राष्ट्रीय औसत से भी बेहतर है।
वहीं, भिलाई स्थित श्री शंकराचार्य इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ने कॉर्निया प्रत्यारोपण संबंधी जानकारी देने से ही परहेज किया। कई बार पत्राचार करने के बावजूद संस्थान की ओर से कोई जवाब नहीं मिला।
नेत्रदान और रिसीवर सूची दोनों में लापरवाही
जिलों और मेडिकल कॉलेजों के बीच समन्वय की कमी ने स्थिति और बिगाड़ दी है। विशेषज्ञों का कहना है कि अधिकांश केंद्रों के पास रिसीवर यानी दृष्टिहीन मरीजों की अद्यतन सूची नहीं है। कई मरीजों के पुराने रिकॉर्ड गलत हैं या अपडेट नहीं किए गए।
रायगढ़ जिले के तमनार ब्लॉक के वरुण सिदार के नाम दर्ज नंबर पर कॉल करने पर स्वास्थ्य कर्मी ने फोन उठाया। उसने बताया कि “वरुण कहीं चले गए हैं, मिल नहीं रहे हैं।” इससे स्पष्ट है कि मरीजों की सूची वर्षों से अपडेट नहीं हुई।
ग्रामीण मरीजों तक नहीं पहुंच पाता नेत्रदान का लाभ
बिलासपुर और आसपास के ग्रामीण इलाकों से आने वाले मरीजों के मामलों में भी गंभीर लापरवाही सामने आई है। कई दृष्टिहीन वर्षों से प्रतीक्षा में हैं, लेकिन किसी ने उनसे संपर्क नहीं किया। लूथरा बिलासपुर के मोहम्मद कासिम ने बताया कि उनकी जांच 2016-17 में रायगढ़ में हुई थी, लेकिन उसके बाद किसी ने संपर्क नहीं किया। हाल में अचानक सिम्स से फोन आया। इसी तरह आदिवासी ब्लॉक की ललीमा राठिया की जांच छह साल पहले हुई थी। डॉक्टरों ने रायपुर भेजा, लेकिन प्रत्यारोपण की कोशिश नहीं की गई।
विशेषज्ञों की राय: सिस्टम में समन्वय और प्रशिक्षण की कमी
गणेश विनायक नेत्र चिकित्सालय के डॉ. चारूदत्त कलमकार के अनुसार, “मृतक से कॉर्निया छह घंटे के भीतर लिया जा सकता है और इसे सात दिन तक सुरक्षित रखा जा सकता है। लेकिन प्रशिक्षित स्टाफ और जिला स्तर पर जागरूकता की कमी के कारण कॉर्निया समय पर जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचता।”
उनका कहना है कि कई बार बुजुर्ग दाताओं के कॉर्निया युवा मरीजों के लिए उपयुक्त नहीं होते। साथ ही, तकनीशियन और ट्रांसप्लांट सर्जनों की कमी भी बड़ी बाधा है।
डेटा और जवाबदेही दोनों की कमी
नेशनल ऑर्गन एंड टिश्यू ट्रांसप्लांट ऑर्गेनाइजेशन (NOTTO) ने राज्यों से कॉर्निया प्रत्यारोपण की वेटिंग लिस्ट मांगी थी, लेकिन छत्तीसगढ़ की राज्य इकाई (SOTTO) अब तक अद्यतन डेटा तैयार नहीं कर सकी। कई जिलों में सूची खानापूर्ति के लिए बनाई गई, लेकिन वर्षों से अपडेट नहीं हुई है।
विभाग का पक्ष
सिम्स नेत्र रोग विभाग की प्रमुख डॉ. सुचिता सिंह का कहना है, “विभाग का सिस्टम ठीक काम कर रहा है। कई कॉर्निया ट्रांसप्लांट के लायक नहीं होते। कुछ मरीज फोन करने के बाद भी अस्पताल नहीं पहुंच पाते।”
वहीं, राज्य नोडल अधिकारी डॉ. निधि ग्वालरे ने कहा कि “कॉर्निया ग्राफ्टिंग लगातार हो रही है। जो कॉर्निया प्रत्यारोपण योग्य नहीं हैं, उनका उपयोग शोध कार्य में किया जाता है। ग्रामीण मरीजों तक सेवाएं बेहतर ढंग से पहुंचे, इस पर काम किया जा रहा है।”
राज्य में नेत्रदान और प्रत्यारोपण की व्यवस्था में गंभीर खामियां हैं। आंकड़े बताते हैं कि लचर तंत्र, प्रशिक्षित स्टाफ की कमी और जिलों में समन्वय न होने से अंधत्व निवारण कार्यक्रम अपनी रफ्तार खो चुका है। अगर समय रहते सिस्टम में सुधार नहीं हुआ तो प्रदेश में हजारों दृष्टिहीनों की आंखों की रोशनी सिर्फ आंकड़ों तक ही सीमित रह जाएगी।
