उमंग उत्साह से मनाया गया दान- पुण्य का छत्तीसगढ़ी लोक पर्व -छेरछेरा

यूनुस मेमन

नई फसल के स्वागत में दान पुण्य का त्योहार छेरछेरा पौष पूर्णिमा पर पारंपरिक रूप से मनाया गया। सुबह से ही घर-घर जाकर बच्चे मनुहार करते दिखे । इसके बाद वनभोज का आयोजन किया गया ।

छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोकपर्वों में से छेरछेरा तिहार की उमंग इस सोमवार पौष मास की पूर्णिमा पर नजर आई। नई फसल घर आने की खुशी में अन्नदान और फसल उत्सव के रूप में छेरछेरा का पर्व मनाया गया। इस दिन एक तरफ जहां बच्चे सुबह-सुबह लोगों के घर जाकर छेरछेरा, माई कोठी के धान ल हेर हेरा की आवाज लगाते हैं तो वहीं ग्रामीण युवा इस दिन घर घर जाकर डंडा नृत्य पेश करते हैं। इन दिनों धान की मिसाई हो जाने के चलते गांव में घर-घर धान का भंडार भरा हुआ है। इसी अन्नपूर्णा के भंडार से अन्न का छोटा अंश बच्चों और युवाओं को प्रदान किया जाता है।

वैसे तो इस पर्व से जुड़ी पौराणिक मान्यता भी है, जिसके अनुसार भगवान शंकर ने माता अन्नपूर्णा से इस दिन भिक्षा मांगी थी और इसी दिन मां शाकंभरी की भी जयंती है, जिन्होंने पृथ्वी पर अकाल और गंभीर खाद्य संकट से निजात दिलाने के लिए अवतार लिया था। लेकिन रतनपुर के इतिहास से भी जुड़ी एक प्रचलित कथा से इसकी शुरुआत मानी जाती है। कहते हैं कि कलचुरी राजवंश के नरेश कल्याण साय और मंडल के राजा के बीच विवाद हुआ और उसके पश्चात मुगल शासक अकबर ने उन्हें दिल्ली बुला लिया। कल्याण साय 8 वर्षों तक दिल्ली में ही रहे। 8 वर्ष बाद जब कल्याण साय राजधानी रतनपुर लौटे तब प्रजा को राजा की लौटने की खबर मिली और पूरी प्रजा जश्न के साथ राजा के स्वागत में राजधानी रतनपुर पहुंच गई
प्रजा के इस प्रेम को देखकर रानी फुलकेना ने रत्न और स्वर्ण मुद्राओं की बारिश करवाई और हर वर्ष इसी तिथि पर प्रजा को आने का न्योता दिया। तभी से राजा के आगमन की खुशी में छेरछेरा का पर्व मनाया जा रहा है।

इसी समय किसानों की फसल भी खलिहानों से घर आ जाती है। कहते हैं बांटने से खुशियां बढ़ती है, इसीलिए इस नवान्न को गांव के बच्चों और युवाओं में बांट कर उन्हें भी उत्सव मनाने का अवसर दिया जाता है। शहरों में यह परंपराएं कम प्रचलित है, फिर भी शहर के उन क्षेत्रों में इस दिन बड़ी संख्या में बच्चे घरों में छेरछेरा मांगने पहुंचे जिन्हें पॉश कॉलोनी का दर्जा नहीं हासिल है।

छत्तीसगढ़ धान प्रधान प्रदेश है। यहां की खुशियों और पर्वों में फसल और धान का संबंध अटूट है। छेरछेरा भी इसी से जुड़ा हुआ पर्व है। जब किसानों की मेहनत और समृद्धि का प्रतीक धान घर में आता है तो फिर उसका दान कर वे खुशी मनाते हैं। इसे दान लेने- देने का पर्व माना जाता है। कहते हैं कि इस दिन दान करने से घरों में धन-धान्य की कोई कमी नहीं होती। कई स्थानों में इसे पोषपुन्नी भी कहा जाता है। परंपरा अनुसार इस दिन छोटे रोने वाले बच्चे जिन्हें रोनहा कहा जाता है उन्हें कर्रा लकड़ी की शाखा से या टहनी से आंकते हैं। कहते हैं इसके बाद वे छोटी-छोटी बातों पर रोना छोड़ देते हैं। जो बच्चे तोतलाते हैं उन्हें भी इस दिन आंकने से वे तुतलाना बंद कर देते हैं।
इस दिन मांगने वाला हर याचक ब्राह्मण स्वरूप होता है तो वहीं देने वाली महिलाएं शाकंभरी का रूप होती है। इस दिन कहे जाने वाले छेरछेरा माई कोठी के धान ल हेरहेरा का अर्थ है यह देवी हम आपके द्वारा आये है। मैंया आप कोठी के धान को देकर हमारे दुख और दरिद्रता को दूर कीजिए। और जब तक उन्हें दान नहीं मिल जाता वे कहते रहते हैं अरन-बरन कोदो करन, जब्भे देबे तबभे टरन। छोटे बच्चे सुबह से ही झोला और चुरकी पड़कर घर-घर जाकर सोमवार को छेरछेरा बोलते नजर आए तो वहीं घरों में भजिया, बड़ा, जलेबी, मेवा मिष्ठान बनाकर एक दूसरे को बांटा गया।

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