

आकाश दत्त मिश्रा

बिलासपुर, छत्तीसगढ़।
राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद भी रेत माफिया का कहर थमने का नाम नहीं ले रहा। कांग्रेस शासनकाल में नदियों से बेतहाशा रेत का दोहन हुआ, और अब भाजपा सरकार में भी हालात जस के तस हैं। बिलासपुर सहित पूरे छत्तीसगढ़ में रेत का अवैध उत्खनन न सिर्फ नदियों के अस्तित्व को संकट में डाल रहा है, बल्कि इसका सामाजिक और पर्यावरणीय असर भी गहरा होता जा रहा है।
रेत खनन के बढ़ते दुष्प्रभावों और सरकारी उदासीनता को लेकर वरिष्ठ कांग्रेस नेता महेश दुबे ‘टाटा’ ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा,
“नदी से पानी नहीं, रेत चाहिए — उलीच लीजिए रेत। बेशर्मों! तुम्हें मां का दूध नहीं, उसकी छाती का खून चाहिए।”
उनकी यह भावुक टिप्पणी स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि कैसे नदियों को जीवनदायिनी से विनाश की ओर धकेला जा रहा है।
नदियाँ हो रहीं रेत विहीन, जैव विविधता पर संकट
राज्य की प्रमुख नदियाँ — विशेषकर अरपा — बेतरतीब और अवैध खनन से अपने प्राकृतिक स्वरूप से दूर होती जा रही हैं। रेत का अत्यधिक दोहन न सिर्फ जलस्तर को प्रभावित कर रहा है, बल्कि नदियों की स्वच्छता और प्रवाह-पथ भी बाधित हो रहा है। रेत प्राकृतिक जल को शुद्ध करने में अहम भूमिका निभाती है, लेकिन इसकी लगातार हो रही लूट से नदियाँ अब स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता भी खोती जा रही हैं।
अपराध और अव्यवस्था का नया रूप
अब इस अवैध धंधे में शराब माफिया भी कूद चुके हैं। उनके गुर्गों द्वारा ग्रामीणों और पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यह संकेत है कि रेत खनन अब सिर्फ पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि कानून व्यवस्था के लिए भी गंभीर खतरा बन चुका है।
स्थानीय युवाओं और ग्रामीणों को पैसे और ताकत का लालच देकर इस ‘रेत उद्योग’ में शामिल किया जा रहा है। आज यह अवैध धंधा एक संगठित अपराध का रूप ले चुका है, जहां गड्ढायुक्त नदियाँ और अपराध साथ-साथ बढ़ रहे हैं।
सरकार की भूमिका पर उठते सवाल
महेश दुबे का आरोप है कि सरकार बदलने के बावजूद रवैया नहीं बदला। अवैध खनन को रोकने के लिए कोई ठोस नीति या प्रभावी कदम नहीं उठाए गए हैं। नदी क्षेत्रों में सुरक्षा और निगरानी का अभाव है। यह सवाल भी उठता है कि क्या प्रशासन और राजनीतिक संरक्षण के बिना इतनी बड़ी पैमाने पर लूट मुमकिन है?
आम जनता की पीड़ा
रेत की कीमतें आसमान छू रही हैं। आम निर्माण कार्यों से लेकर अन्य बुनियादी जरूरतों तक, हर जगह आम लोगों को भारी आर्थिक बोझ झेलना पड़ रहा है। वहीं दूसरी ओर, प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण भावी पीढ़ियों के लिए संकट बनता जा रहा है।
छत्तीसगढ़ की नदियाँ आज चौराहे पर खड़ी हैं — एक ओर विकास और दूसरी ओर विनाश। यदि समय रहते रेत माफियाओं पर सख्त कार्रवाई नहीं हुई, तो राज्य न केवल अपने जल संसाधन बल्कि पारिस्थितिकी, कानून-व्यवस्था और सामाजिक संतुलन भी खो देगा।
अब देखना यह होगा कि सरकार इस गूंजती आवाज को सुनेगी या रेत की चुपचाप बहती लहरों में उसे भी डुबो दिया जाएगा।