
यूनुस मेमन

आमतौर पर लोग पुलिस के गुस्सैल, रौबदार और रूखे स्वभाव से ही परिचित होते है, इसीलिए खाकी के पीछे छुपे मानवीय पहलू को जानने- समझने की कोशिश भी बहुत कम होती है। लेकिन वर्दी के पीछे मानवीय संवेदनाएं भी है, जो भले ही यदा-कदा ही सामने आती है लेकिन जब भी आती है तो फिर उसे सैल्यूट करने का मन करता है। ऐसा ही कुछ दिखा बेलगहना क्षेत्र में, जहां रहने वाले यज्ञ नारायण का निधन 45 साल पहले ही हो चुका था। उनके पीछे उनकी विधवा अमृत बाई एकाकी जीवन जी रही थी। एक बुढ़ाते बेटे के अलावा कहने को उनका अपना कोई नहीं था । जब पास में ना दौलत हो और ना जवानी, तो फिर अपने भी पराए हो जाते हैं ।अमृत बाई का तो वैसे भी कोई अपना था नहीं। 95 साल की जिंदगी में से करीब 50 साल तो उन्होंने अकेले वैधव्य में काट दिया। यूं तो यह जिंदगी उनके लिए किसी अभिशाप से कम नहीं थी, लेकिन जब इस अभिशाप से मुक्ति मिली तो उन्हें शमशान तक पहुंचाने के लिए 4 कंधे तक नहीं मिले ।

9 फरवरी को 95 साल की उम्र में अमृत बाई चल बसी। अमृतबाई के पीछे सिर्फ उसका 55 वर्षीय बेटा रह गया। गरीबी और लाचारी के चलते उनका साथ देने वाला गांव में कोई नहीं था। जब बुजुर्ग महिला के शव को कंधा देने के लिए समाज का कोई आगे नहीं आया, तब इसकी सूचना बेलगहना पुलिस को मिली । भले ही उस गांव की इंसानियत मर चुकी हो लेकिन समाज अभी इतना निष्ठुर भी नहीं हुआ था । पुलिस की अगुवाई में कुछ समाजसेवी और पत्रकार आगे आये, जिन्होंने खुद अमृत बाई के पार्थिव शरीर को कंधा देकर उनके अंतिम संस्कार की प्रक्रिया 2 दिन बाद पूरी की।

जिसने भी यह नजारा देखा उसके हाथ सेल्यूट के लिए खुद ब खुद उठ गए। इस घटना ने जहां कुछ लोगों की संवेदनशीलता उजागर की, वहीँ पूरे गांव की मर चुकी संवेदनाएं भी दर्शाई। अमृत बाई तो 95 साल की उम्र में चल बसी, लेकिन गांव की संवेदनाएं न जाने पीछे कब की मर चुकी थी, जिसकी सड़ी गली लाश से उठती सड़ांध का एहसास अब जाकर आम लोगों को हुआ है।
