गैर इरादतन हत्या के मामले में माननीय हाई कोर्ट ने अपोलो के चार चिकित्सकों को दी बड़ी राहत, कहा –  इस तरह से अपराध दर्ज होने लगा तो फिर कोई चिकित्सक किसी का इलाज ही नहीं करेगा

सतविंदर सिंह अरोरा

बिलासपुर। “ऐसे में तो कोई डॉक्टर किसी मरीज का इलाज ही नहीं करेगा” जैसी कड़ी टिप्पणी के साथ” चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा एवं जस्टिस रजनी दुबे की अवकाशकालीन बेंच ने अपोलो अस्पताल के चार वरिष्ठ चिकित्सकों के खिलाफ न्यायिक प्रक्रिया पर आगामी आदेश तक रोक लगा दी है। इन चार चिकित्सकों के खिलाफ सरकंडा पुलिस ने 304 ए के तहत अपराध पंजीबद्ध कर न्यायालय में चालान पेश किया है।
चिकित्सक को ईश्वर का रूप माना जाता है क्योंकि व्यक्ति को किसी भी प्रकार की शारीरिक तकलीफ होने पर चिकित्सक ही होता है जो शारीरिक तकलीफ दूर कर न सिर्फ उसकी सहायता कर सकता, बल्कि उसकी जान भी बचाता है। किंतु यदि बिना वजह चिकित्सक को ही कठघरे में खड़ा किया जाए अथवा उस पर अविश्वास रखा जाए तो ऐसे में चिकित्सक आखिर इलाज करेगा कैसे?

क्या है पूरा मामला

उल्लेखनीय है कि दयालबंद निवासी गोल्डी छाबड़ा को 25 दिसम्बर 2016 को पेट मे दर्द होने पर अपोलो में भर्ती किया गया था। 26 दिसम्बर को उसकी मौत हो गई। इस मामले में शिकायत के बाद सरकंडा पुलिस ने उपचार में लापरवाही के आरोप में बिलासपुर शहर और अपोलो के जाने माने वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. देवेंदर सिंह, डॉ. राजीव लोचन भांजा, डॉ. सुनील केडिया व डॉ. मनोज राय के खिलाफ धारा 304 ए के तहत जुर्म दर्ज कर न्यायालय में चालान पेश किया है। इस कार्रवाई के खिलाफ इन डाक्टरों ने हाई कोर्ट में याचिका पेश की है। चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा एवं जस्टिस रजनी दुबे की अवकाशकालीन बेंच में मामले की सुनवाई हुई। सुनवाई के दौरान बेंच को बताया गया कि चार्जशीट पेश हो गया है, चार्ज फ्रेम नहीं हुआ है। पूरे मामले पर डायरेक्टर मेडिको लीगल रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट पर प्रश्चचिन्ह लगाते हुए माननीय न्यायालय ने आगे की कार्रवाई में रोक लगाते हुए प्रतिवादी को नोटिस जारी करने का आदेश दिया है।

इस तरह से हाई कोर्ट ने अपोलो के चिकित्सकों को बड़ी राहत दी है, साथ ही यह राहत उन सभी चिकित्सकों के लिए भी है, जिनका प्रथम प्रयास हर हाल में मरीज को ठीक करना और उनके प्राण बचाना है। कोई भी चिकित्सक कभी नहीं चाहता कि उसके किसी मरीज की जान चली जाए, लेकिन चिकित्सक ईश्वर भी नहीं है कि हर बार वह कामयाब हो जाए । लेकिन देखा जाता है कि मरीज की मौत हो जाने के बाद परिजन इसका ठीकरा चिकित्सक पर ही फोड़ देते हैं। इस मामले में भी यही हुआ। मृतक गोल्डी छाबड़ा की मौत 2016 में हुई थी उस दौरान परिवार ने पोस्टमार्टम करने से मना कर दिया था। बाद में 2019 में उसका बिसरा जांच के लिए भेजा गया। माननीय न्यायालय ने भी माना कि 3 साल बाद जांच रिपोर्ट में क्या निकलता, इसके बाद भी चिकित्सकों को दोषी करार दिया गया। हालांकि घटना के दौरान यह भी चर्चा में रहा कि गोल्ड छाबड़ा ने जहर सेवन किया था लेकिन पोस्टमार्टम ना होने से इसकी पुष्टि नहीं हो पाई।

उस समय पूरा शहर स्तब्ध रह गया था जब इन ख्यातिलब्ध चिकित्सकों के खिलाफ इलाज में लापरवाही और गैर इरदतम हत्या का अपराध दर्ज कर लिया गया। चिकित्सकों ने भी बताया कि उन पर अपराध दर्ज करने के दौरान नियमों की अवहेलना हुई है, जिस संस्था ने उन्हें दोषी करार दिया उसकी जांच और मान्यता पर भी सवाल खड़े किए गए। अब हाई कोर्ट के मौजूदा फैसले ने चारों चिकित्सा के दावे पर मोहर लगाई है जिन्होंने कहा था कि अगर इलाज के दौरान किसी मरीज की जान चली जाती है और उस पर डॉक्टर के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का अपराध दर्ज होता है तो ऐसे में कोई भी चिकित्सक किसी भी मरीज का इलाज करने से पहले 10 बार सोचेगा और गंभीर किस्म के मरीजों को रेफर कर दिया जाएगा, जिसका नुकसान भी अंततः मरीज और उसके परिजनों को ही भोगना होगा।

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