



प्रवीर भट्टाचार्य
बिलासपुर।

लोक आस्था के महापर्व छठ का आज दूसरा दिन खरना के रूप में श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जा रहा है। इस दिन व्रती महिलाएं पूर्ण शुद्धता और नियमों का पालन करते हुए भगवान भास्कर (सूर्य देव) और छठी मैया की आराधना करती हैं। खरना का दिन इस पर्व का सबसे महत्वपूर्ण चरण माना जाता है, क्योंकि इसी दिन से व्रती 36 घंटे के निर्जला उपवास की शुरुआत करती हैं।

क्या है खरना?
खरना शब्द का अर्थ होता है “शुद्धिकरण” या “शुद्ध भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करना।” यह दिन छठ व्रत का दूसरा चरण है, जो पहले दिन नहाय-खाय के बाद आता है। इस दिन व्रती पूरे दिन बिना जल ग्रहण किए उपवास रखते हैं और सूर्यास्त के बाद स्नान कर भगवान सूर्य को अर्घ्य अर्पित करने के पश्चात खरना का प्रसाद बनाते हैं। इसी प्रसाद को ग्रहण कर अगले 36 घंटे का निर्जला व्रत आरंभ होता है।
खरना का प्रसाद कैसे बनता है

खरना के प्रसाद में गुड़-चावल की खीर, रोटी (पूरा) और केला मुख्य रूप से शामिल होते हैं।
खीर – ताजा धुले चावल, गाय के दूध और गुड़ से बनाई जाती है। इसमें चीनी या अन्य किसी चीज का प्रयोग नहीं किया जाता।
रोटी या पूरा – गेहूं के आटे से बनी मोटी रोटियाँ होती हैं, जिन्हें घी में सेंका जाता है।
प्रसाद बनाने से पहले रसोई, बर्तन और स्थान की पूर्ण शुद्धता का ध्यान रखा जाता है।

व्रती स्नान कर नए वस्त्र धारण करते हैं और प्रसाद को मिट्टी के चूल्हे पर बनाते हैं, जिससे वातावरण में पवित्रता बनी रहे।

रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद व्रती परिवार के सभी सदस्यों के साथ यह प्रसाद ग्रहण करते हैं और इसके बाद व्रती अगले 36 घंटे तक जल भी नहीं पीते।
खरना के पीछे की कथा

लोक मान्यता के अनुसार, जब सूर्य पुत्री छठी मैया ने पृथ्वी पर आकर लोक कल्याण हेतु सूर्य आराधना का विधान बनाया, तब उन्होंने सबसे पहले निर्जला उपवास रखकर सूर्य देव को अर्घ्य अर्पित किया था। उन्होंने खरना के दिन शुद्ध अन्न ग्रहण कर आत्मशुद्धि और संयम का संदेश दिया। इसी परंपरा को आज तक व्रती निभा रहे हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार, त्रेतायुग में भगवान श्रीराम और माता सीता ने अयोध्या लौटने के बाद सूर्यदेव की उपासना कर इसी प्रकार का व्रत रखा था। उसी से प्रेरणा लेकर यह पर्व लोक परंपरा में स्थायी हुआ।


आने वाले दिनों का कार्यक्रम
खरना के बाद सोमवार 27 अक्टूबर को छठ पर्व का तीसरा दिन होगा, जब व्रती अस्ताचलगामी सूर्य (अस्त होते सूर्य) को अर्घ्य देंगे। इस दिन संध्या के समय व्रती सजाए हुए दउरे (बाँस की टोकरी) में फल, ठेकुआ, नारियल, और प्रसाद सजाकर घाट पर पहुँचते हैं। सूर्यास्त के समय वे नदी या तालाब के जल में खड़े होकर सूर्य देव और छठी मैया की आराधना करते हैं।
अगले दिन 28 अक्टूबर की प्रातः 6:03 बजे व्रती उदयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पित करेंगे। यह पर्व का अंतिम और सबसे पवित्र क्षण होता है। इसके बाद व्रती जल ग्रहण कर व्रत का पारण करती हैं, जिससे चार दिन का यह महापर्व पूर्ण होता है।
आस्था, अनुशासन और स्वच्छता का पर्व
छठ पर्व अपनी अनुशासन, स्वच्छता और सामूहिकता के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। व्रती और श्रद्धालु घाटों की सफाई, जल संरक्षण और पर्यावरण के प्रति जागरूकता का संदेश देते हैं।
बिलासपुर के अरपा नदी तट, तोरवा, नेहरू नगर सहित अन्य छठ घाटों पर तैयारी पूरी हो चुकी है। पूजा समितियों ने घाटों की सफाई, लाइटिंग और सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित कर ली है ताकि श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की असुविधा न हो।

यह पर्व केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि संयम, प्रकृति के प्रति सम्मान और पारिवारिक एकता का संदेश भी देता है। छठी मैया की कृपा से समृद्धि, संतति और सुख की कामना करते हुए पूरा शहर भक्ति और श्रद्धा में डूब गया है।

