

प्रवीर भट्टाचार्य
बिलासपुर। 102 साल पुराना बंगाली स्कूल का दुर्गा उत्सव, जिसने कभी पूरे शहर में अपनी खास पहचान बनाई थी, अब अपनी रौनक खोने लगा है। इस उत्सव का इतिहास रेल नगरी से गहराई से जुड़ा हुआ है। हावड़ा–मुंबई रेल मार्ग पर बसे बिलासपुर में बड़ी संख्या में बंगाल से आए रेल कर्मचारी रहा करते थे। दुर्गा पूजा पर घर न जा पाने वाले इन लोगों ने 1923 में चुचुहिया पारा के पास रेल पटरी किनारे पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन किया। उस समय भट्टाचार्य दादा ने अपने बोनस से कोलकाता जाकर मां दुर्गा की प्रतिमा खरीदी और मालगाड़ी से बिलासपुर लाए। प्रतिमा के स्टेशन पहुंचते ही श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी थी।

इसके बाद बंगाली एसोसिएशन का गठन हुआ और पूजा का आयोजन बंगाली स्कूल परिसर में शिफ्ट कर दिया गया। यहीं से यह उत्सव पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी परंपराओं और संस्कृति के साथ आगे बढ़ता गया। शुरुआत में प्रतिमा कोलकाता से लाई जाती थी, लेकिन बाद में बंगाल के कारीगर बिलासपुर आकर प्रतिमा बनाने लगे। बंगाल से पुजारी और ढाक वादक भी बुलाए जाते थे।


आज इस आयोजन के 102 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस वर्ष पंडाल में छत्तीसगढ़ के प्रमुख शक्ति पीठों जैसे डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी माता, कोरबा की सर्वमंगला और रतनपुर की महामाया मंदिर की झांकी विशेष आकर्षण का केंद्र है।

कभी इस दुर्गा पूजा का जलवा ही कुछ और था। बंगाली परिवार ही नहीं, पूरा शहर यहां उमड़ पड़ता था। लोग सुबह बंगाली वेशभूषा में पूजा और पुष्पांजलि में शामिल होते, भोग ग्रहण करते और फिर दोस्तों-रिश्तेदारों के साथ घंटों ‘अड्डा’ जमाते।

बंगाली स्कूल का उत्सव केवल पूजा तक सीमित नहीं था, बल्कि इसके साथ मेला भी सजता था। पंडाल के आसपास खाने-पीने के स्टॉल, खिलौनों और घरेलू सामान की दुकानें, मीना बाजार और झूले इसे पूरे शहर का आकर्षण बना देते थे। ठीक सामने हिंदुस्तानी सेवा समाज की रामलीला और पास के नॉर्थ ईस्ट इंस्टिट्यूट मैदान में दशहरे पर रावण दहन का दृश्य इस उत्सव को और भव्य बना देता था।

पुरानी पीढ़ियों की स्मृतियों में आज भी वह भीड़ दर्ज है जब शाम को पंडाल में पैर रखने की जगह नहीं होती थी। लोग कहते थे कि बिलासपुर में चाहे जितने पंडाल हों, बंगाली स्कूल का दुर्गा उत्सव सबसे भारी पड़ता था।

लेकिन समय ने करवट बदली। जिन्होंने इस आयोजन की नींव रखी थी, वे अब नहीं रहे। अगली पीढ़ी भी बुजुर्ग हो चुकी है। नई पीढ़ी के लिए यह उत्सव वैसा आकर्षण नहीं रखता। नतीजा यह है कि आज पंडाल और मेला खाली-खाली से नजर आते हैं। पहले जहां सड़कों पर भारी भीड़ उमड़ती थी, अब वहां सन्नाटा रहता है। दुकानों पर ग्राहकों की प्रतीक्षा होती है और केवल कुछ ग्रामीण खरीदारी करते दिखाई देते हैं।

इस बीच शहर में भव्य दुर्गा पंडालों का दौर शुरू हो चुका है। करोड़ों की लागत से बनने वाले थीम पंडाल और हाई-टेक सजावट वाली जगहों पर भीड़ टूट पड़ती है। वैसी ही भीड़, जो कभी बंगाली स्कूल में नजर आती थी, अब आदर्श दुर्गा उत्सव समिति और मध्य नगरी जैसे आयोजनों में देखने को मिलती है।

रामलीला मंचन का हाल भी वैसा नहीं रहा। जब नई पीढ़ी वीएफएक्स से सुसज्जित भव्य रामायण पर्दे पर देखती है, तो स्थानीय कलाकारों का असंगत और स्तरहीन प्रस्तुतीकरण उन्हें आकर्षित नहीं कर पाता। कई बार मंच पर कलाकार संवाद की बजाय जो मन में आया कहने लगते हैं, यहां तक कि ‘सारे जहाँ से अच्छा’ जैसे गीत भी बीच में गा दिए जाते हैं। ऐसे में नई पीढ़ी का जुड़ाव और भी कमजोर हो जाता है।

कुल मिलाकर, 102 साल पुरानी यह परंपरा अब धीरे-धीरे इतिहास बनती जा रही है। बंगाली स्कूल का दुर्गा उत्सव आज भी परंपरागत रीति-रिवाजों के साथ आयोजित हो रहा है, लेकिन इसकी चमक और रौनक अब अतीत की यादों में सिमटती जा रही है।
