बंगाल की परंपराओं के साथ बिलासपुर में भी हुई संधि पूजा, नवमी पूजन के बाद दी गई पुष्पांजलि ,कल सिंदूर खेला, बंगाली स्कूल का आयोजन है सबसे खास

बिलासपुर के दुर्गा पूजा उत्सव में बंगाल की स्पष्ट झलक नजर आती है। यहां भी बंगाल की ही परंपराओं का पालन कर मां दुर्गा की पूजा आराधना की जाती है। विशेष कर रेलवे क्षेत्र और आसपास लगे इलाकों में इस परंपरा का पालन किया जाता है। आज भी देवी की मूर्ति तैयार करने बंगाल से ही मूर्तिकार आते हैं। पंडाल का निर्माण भी बंगाल के ही कारीगर करते हैं। पुजारी बंगाल से बुलाए जाते हैं। यहां तक कि ढाक बजाने वाले और भोग तैयार करने वाले भी इस मौके पर बंगाल से ही आते हैं ।साथ ही साथ वे लोग भी दुर्गा पूजा पर अपने शहर खींचे चले आते हैं जो नौकरी या अन्य किसी कारण से बाहर रहते हैं ।बंगाल की इस परंपरा की स्पष्ट झलक 101 साल प्राचीन बंगाली स्कूल के दुर्गा पूजा में देखी जा सकती है।

बंगालियों के लिए पूजो मतलब ही दुर्गा पूजा

मां दुर्गा की आराधना में पूरा देश मगन है, लेकिन यह पूजा बंगाल के लिए जैसे सब कुछ है, क्योंकि बंगाल में पूजो का मतलब ही है दुर्गा पूजा । बंगालीजन वर्ष भर इसकी प्रतीक्षा करते हैं और उनकी तैयारी तो कई महीने पहले से ही शुरू हो जाती है। बंगाल में दुर्गा पूजा को लेकर कैसा उत्साह है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि 100 साल पहले जब रेलवे के कर्मचारी बनकर कुछ बंगालीजन बिलासपुर में पहुंचे तो उन्होंने यहां भी कठिन परिस्थितियों के बाद भी दुर्गा पूजा की शुरुआत की। 1923 में चुचुहिया पारा के पास यह पूजा किया गया। बाद में बंगाली एसोसिएशन के गठन के बाद से इस पूजा को बंगाली स्कूल में किया जा रहा है। आयोजन को 101 साल पूरे हो चुके हैं ।

दुर्गा पूजा के अवसर पर घर की ओर लौटने लगते हैं बंगालीजन

उत्सव धर्मी बंगाली समाज के लिए शारदोत्सव के अलग ही मायने हैं । यह पांच दिवसीय आयोजन है। नए कपड़े, गहने, साजसज्जा के साथ अपने घरों की ओर लौटने की शुरुआत पूजा से पहले ही हो जाती है। बिलासपुर में भी बंगाली एसोसिएशन की पूजा में उसी परंपरा को देखा जा सकता है । षष्ठी पर बोधन के साथ आयोजन की शुरुआत हुई। सिंह पर सवार 10 भुजा मां दुर्गा अपने 10 हाथों में 10 प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं। मां महिषासुर मर्दिनी है । बंगाल की परंपराओं में शंख ध्वनि और उलूक ध्वनि के साथ उनकी पूजा अर्चना होती है। बंगाल की मान्यता है कि मां दुर्गा अपने बच्चों के साथ भू लोक पर आती है। गणेश , कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती को उनके संतान के रूप में पूजा जाता है।

महाष्टमी है सबसे खास

वैसे तो इसका हर दिन विशेष है लेकिन महा अष्टमी यहां सबसे महत्वपूर्ण है। महा अष्टमी और महानवमी के संधिकाल में संधि पूजा की जाती है । मान्यता है कि इसी समय मां दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। परंपरा अनुसार संधी पूजा में 108 कमल के पुष्प देवी को अर्पित किए गए तो वही 108 दीपक जलाए गए। इस बार प्रातः ही संधि पूजा संपन्न हुआ। इसके बाद नवमी पूजन किया गया ।
दुर्गा पूजा के अवसर पर सुबह-सुबह स्नान आदि कर नए वस्त्रों में सज धज कर मां के भक्त उन्हें ष्पांजलि अर्पित करने पहुंचे ।

बंगाल में तो दुर्गा पूजा श्रद्धा, शक्ति और संस्कृति का उत्सव है । बंगाल की परंपरा का ही पालन करते हुए बिलासपुर में भी पारंपरिक ढाक की धुन पर माता की आराधना की गई। बंगाल का यह सिर्फ धार्मिक नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व भी है। पूरे वर्ष अन्य शहरों में रहने वाले भी दुर्गा पूजा पर घर लौटते हैं और फिर पंडालो में एक लंबे अंतराल के बाद मेल मुलाकात होती है, जहां अड्डा जमता है। इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे गीत, संगीत ,नाटक के भी आयोजन किए जाते हैं। हर शाम आरती के बाद धुनुची नाच की विशिष्ट परंपरा है। बेंगोली एसोसिएशन के सौ से भी अधिक साल पुराने आयोजन में उसी परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है।

शनिवार को सिंदूर खेला

शनिवार को यहां दशमी पूजन के बाद सिंदूर खेला का आयोजन होगा, जहां सुहागिन महिलाएं देवी को सिंदूर अर्पित कर एक दूसरे के चेहरे पर सिंदूर लगाकर उस सिंदूर को वर्ष पर सहेज कर रखेंगी। इसके साथ ही बंग समाज का विजया पर्व आरंभ होगा, जहां बड़ों को प्रणाम, छोटो को आशीर्वाद और हम उम्र को प्रीति और शुभेच्छा का आदान-प्रदान होगा । यह शरद पूर्णिमा तक चलेगा। विजयदशमी पर आबार ऐशो माँ के आह्वान के साथ मां को विदाई दी जाएगी। देवी प्रतिमा का विसर्जन करते हुए यह भरोसा दिलाया जाता है कि ‘ आसछे बोछोर आबार होबे’ अर्थात अगले साल पुनः इतना ही भव्य आयोजन होगा और मां एक बार फिर लौट कर आएंगी।

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