देश पर कलंक आपातकाल के 50 साल पूरे, साहित्यकार संजय अनंत ने याद किया वह काला दौर

संजय अनंत

आपातकाल में पत्रकारिता आपातकाल यानि इमरजेंसी के 50 वर्ष.. ज़ब लोकतंत्र ताले में बंद था
उन दिनों पत्रकारिता का मतलब क्या था?? वे झुकने कहते तो कुछ पत्रकार जमीन के रेंगने लगते…
टीवी और आकाशवाणी तो सरकार के कब्ज़े में थी, अख़बार छपने के पहले सेंसर किए जाते , अधिकारी पढ़ते और संपादक को बताते की क्या काटना है और क्या छापना है..
कब किसे पुलिस उठा कर ले जाएगी, किसी को पता नहीं होता था..
इस दौर में जो न झुके न ज़मीन में रेंगे न अपनी कलम बेचीं
धर्मवीर भारती उन में से एक थे…
अब इस क्रांतिकारी कविता मुनादी के अंश को पढ़िए..


ख़लक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का…
हर ख़ासो–आम को आगह किया जाता है कि
ख़बरदार रहें
और अपने अपने किवाड़ों को अंदर से
कुंडी चढ़ा कर बंद कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी
अपनी काँपती कमज़ोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!
इमरजेंसी के विरोध में व लोकनायक जयप्रकाश के समर्थन में लिखी इस कविता ने सत्ता के मद में चूर काबिज़ सरकार को खुली चुनौती दी


संजय ‘अनंत ‘©

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!