दार्शनिक प्रवचन में, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की कृपा प्राप्त प्रचारिका सुश्री श्रीश्वरी देवी जी के मुखारविंद से विलक्षण धारा प्रवाह प्रवचन की गंगा में अवगाहन करने श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ रही है।
प्रवचन के ग्यारवेह दिन में दीदी जी ने ईश्वर की प्राप्ति के विषय में बताते हुए कहा कि ईश्वर प्राप्ति के तीन ही मार्ग है । कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग। इसमें प्रथम कर्म योग का विस्तार करते हुए और वेद, गीता, भागवत, रामायण के प्रमाण देते हुए उन्होंने कहा की एक ओर जहां शास्त्र, वेद कर्म धर्म के पालन का आदेश देते है वही दूसरी ओर कर्म, धर्म की घोर निन्दा भी करते है। इस विरोधाभाष का समन्वय करते हुए देवी जी ने कहा कि कर्म चार प्रकार के होते है। पहला नित्य कर्म अर्थात् प्रतिदिन किया जाने वाला कर्म जैसे संध्या आदि। दुसरा नेमित्तिक कर्म अर्थात् जन्म, मृत्यु, सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण आदि के समय किया जाने वाला कर्म , तीसरा काम्यकर्म अर्थात संसारी कामनाओं की पूर्ति के लिए किया जाने वाला कर्म अर्थात् कोई पाप हो जाने पर उसकी निवृत्ती के लिए किया जाने वाला कर्म, चातुर्मास व्रत, यज्ञ, पूजा पाठ आदि।
सुश्री श्रीश्वरी देवी जी ने आगे कहा कि प्रत्येक कर्म, धर्म के पालन में छः–छः नियम है। जिनका वेदों के अनुसार शत प्रतिशत पालन आवश्यक है। अर्थात् देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मंत्र, कर्म इन छः शर्तों का सही पालन होना चाहिए। जो कि इस कलयुग में संभव नहीं है। वेद मंत्रों में स्वर लगे होते होते है जिनका सही–सही उच्चारण होना चाहिए। अन्यथा वो यजमान का ही नाश कर देते हैं। वेदों में कथा आती है की वृत्तासुर नामक राक्षस ने विजय प्राप्त करने के लिए यज्ञ करवाया किंतु वैदिक स्वर में त्रुटि हो जाने से वो राक्षस हि मारा गया । यदि ये कर्म सही–सही किये जाते हैं तब इसका फल है स्वर्ग जोकि माया का ही एक लोग हैं और यदि त्रुटि हो जाएगी तो उसका फल है नरक अतएव कर्म, धर्म के द्वारा माया निवृत्ति असंभव है। इसलिए हमारे शास्त्रों ने कर्मयोग का आदेश किया है। अर्थात् मन से निरंतर हरि –गुरु का चिंतन एवं शरीर से कर्म का पालन। इसका परिणाम है माया निवृत्ति एवं ईश्वर प्राप्ति । श्री कृपालु जी महाराज अपने भक्ति शतक नाम ग्रंथ में कर्मयोग की परिभाषा में कहते हैं–
मन हरि में तन जगत में कर्म योग यही जान,
तन हरि में मन जगत में ये महान अज्ञान।।