बिलासपुर में दुर्गा विसर्जन के दौरान बुधवार रात को एक बार फिर दो समितियां के बीच जमकर लाठी डंडे चले ।अब तो जैसे यह परंपरा बन चुकी है। पिछले साल भी दुर्गा विसर्जन के दौरान आगे झांकी ले जाने के विवाद में शनिचरी और कुदुदंड के दो समितियां के बीच जमकर मारपीट हुई थी। इस बार भी उससे कोई सबक नहीं लिया गया ।
कोतवाली थाना के पास ही विसर्जन के दौरान दो समितियां के सदस्य आपस में भिड़ गए । लाठी डंडे के साथ एक दूसरे पर कुर्सियां फेकी गई। इस वजह से यहां काफी देर तक हंगामा मचा रहा ।
दुर्गा पूजा एक धार्मिक आयोजन है। जिसमें हिंदू आस्था जुडी हुई है। वर्ष में दो बार आदि शक्ति मां दुर्गा की आराधना कर देवी शक्तियों का आह्वान किया जाता है, लेकिन समस्या यह है कि अधिकांश दुर्गा समितियां में असामाजिक तत्वों की दखल बढ़ती जा रही है। विशेष कर विसर्जन में ऐसे ही लोग शामिल रहते हैं जो ना नियम कानून को मानते हैं ना ही धार्मिक परंपराओं को। खुद को बाहुबली मानने वाले ऐसे लोग जब शराब पीकर विसर्जन में शामिल होते हैं तो फिर छोटी-छोटी बात पर उनके द्वारा इसी तरह हंगामा और झगड़ा मारपीट किया जाता है । पिछले कुछ सालों से लगातार इस तरह की घटनाएं सामने आ रही है ।अगर ऐसा ही चलता रहा तो संभव है कि एक दिन दुर्गा विसर्जन पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाए।
खुद को कथित रूप से हिंदू हितैषी बताने वाले कुछ लोग इस बात पर ढेर ढेर आंसू बहा रहे हैं कि जिला प्रशासन द्वारा दुर्गा विसर्जन में डीजे की अनुमति नहीं दी गई इसलिए उनकी बरसो पुरानी परंपरा टूट गई , लेकिन उनकी जुबान इस मुद्दे पर नहीं खुलती कि आखिर क्यों दुर्गा विसर्जन जैसे धार्मिक उत्सव के दौरान बार-बार इस तरह की घटनाओं की पुनरावृति हो रही है ?
ऐसे लोगों को स्वयं आगे आकर इस तरह के अराजक तत्व को विसर्जन में शामिल करने से रोकना चाहिए, बजाय इसके वे प्रशासन को कोसने में ही अपनी ऊर्जा जाया कर रहे हैं।
अब तो शायद यह नियम सा बन चुका है कि दुर्गा विसर्जन के दौरान इस तरह की घटनाएं होगी, तभी अब सभी लोग अपने परिवार के साथ विसर्जन झांकी देखने पहुंचने से भी कतरने लगे हैं। ऐसी घटनाएं पूरे बिलासपुर को शर्मशार करने वाली है , लेकिन जाहिर है कि इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बताया जा रहा है कि कोतवाली पुलिस इस मामले को संज्ञान में लेकर कुछ लोगों के खिलाफ मामला भी दर्ज कर रही है। हालांकि ऐसे ही कार्रवाई पिछले साल भी हुई थी लेकिन उससे क्या बदल गया ? यह नैतिकता की बात है। जब तक विसर्जन में शामिल लोगों में ही यह अनुभूति नहीं उत्पन्न होगी कि दुर्गा विसर्जन एक धार्मिक आयोजन है, विसर्जन में शामिल सभी प्रतिमाएं मां दुर्गा की ही है, क्या फर्क पड़ता है कौन आगे है और कौन पीछे है ? ऐसे समितियां से पूछना चाहिए कि क्या वे केवल अपनी समिति के ही दुर्गा मां को आराध्य मानते हैं , उनके लिए क्या दूसरी समिति की दुर्गा प्रतिमा आराध्या नहीं है ? अगर हां तो फिर यह विवाद क्यों ?