पंद्रह दिवसीय दिव्य दार्शनिक प्रवचन के आठवे दिन जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रमुख प्रचारिका सुश्री श्रीश्वरी देवी जी ने महापुरुष और भगवान में अभेद बताते हुए कहा कि महापुरुष और भगवान में कोई भेद नहीं है, क्योंकि जब कोई जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त करके महात्मा बन जाता है तो भगवान अपनी सारी शक्ति अपना सारा ज्ञान उस महात्मा को प्रदान कर देते है। अतएव जो शक्तियां जो ज्ञान भगवान के पास वही सारी शक्ति सारा ज्ञान महापुरुषों के पास । अतएव महापुरुष और भगवान में कोई भेद नहीं । भागवत में भगवान कहते है:–
“आचार्य मां विजानियात नावमन्येत करहीचित” आचार्य अर्थात् गुरु को मुझे ही जानों मैं ही तुम्हारे गुरु के रूप में हुं। मुझमे और गुरु में अर्थात् महापुरुष में कोई मतभेद मत मानो। इसलिए जैसी भक्ति भगवान के प्रति हो वैसी ही भक्ति गुरु के प्रति भी होना चाहिए। गुरु की भक्ति को श्रेष्ठ बताते हुए उन्होंने कहा कि भगवान तो अपने कानून में बंधे हैं। वो कहते है *"निर्मल मन जन सो मोही पावा"*। लेकिन हमारा मन तो अभी मलिन है, और जब तक ये मन निर्मल नहीं हो जाता हम ईश्वर प्राप्ति नहीं कर सकते । अतः शिष्य के अंतःकरण की शुद्धि के पश्चात वो दिव्य प्रेम, दिव्य शक्ति भी गुरु प्रदान करता है। अतएव गुरु का स्थान सबसे ऊंचा माना गया है। मायातीत महापुरुषों के मायापूर्ण कार्यों का रहस्य बताते हुए उन्होंने कहा कि महापुरुष जीव कल्याण के लिए अपनी योगमाया शक्ति से माया के कार्य करते है। भीतर से तो परम् विरक्त हैं। किंतु बाहर से वो केवल एक्टिंग में माया के कार्य करते हैं। जैसे फिल्मों में कलाकार अनेक प्रकार के किरदार निभाते हुए भीतर से भी अपने आप को नहीं भूलते ऐसे ही महापुरुष भी अपनी पर्सनाँलिटी में रहते हुए बाहर से माया के कार्यों की केवल एक्टिंग करते हैं। जैसे ध्रुव, प्रहलाद, अम्बरीष, पृथु ने भगवत प्राप्ति के पश्चात भी करोड़ों वर्षों राज्य किया माया के कार्य भी किये। इसलिए हमें महापुरुषों को पहचानने के लिए उनके बाहरी क्रियाकलापों को न देखते हुए उनका नित्य संग करके उनके भीतर वाले ईश्वरीय प्रेम को पकड़ने का प्रयास करना चाहिये। तभी हम वास्तविक संत को पहचान पाएंगे।